What is Naturopathy?
प्राकृतिक चिकित्सा एक जीवन जीने की कला है । प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा शरीर निरोगी बनाया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी प्रकृति । इसके पाँच आधार है। यह ठोस सिद्धांतों पर आधारित एक औषधी रहित एक रोग निवारक पद्धति है। मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है और उसका शरीर प्रकृति के इन्हीं पंच तत्वों से बना है - आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी । हमारे पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षो पहले विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की खोज की जिससेेे शरीर में रोग के लक्षण उत्पन्न ना हो और यदि रोग हो जाए तो प्राकृृृतिक तत्वों के द्वारा जैसे- धूप, मिट्टी, जल, हवा, जड़ी बूटियों द्वारा तुरंत उस पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाए इसी पद्धति को प्राकृतिक चिकित्सा के नाम से जाना जाता है ।
जब मनुष्य स्वाभाविकता को त्याग करके कृत्रिमता की ओर बढ़ता है अपने रहन-सहन , खान-पान को अधिक आकर्षक और दिखावटी बनाने के लिए प्रकृति के सरल मार्ग से हटता है तो उसकी स्वास्थ्य संबंधी उलझने बढ़ने लगती है और समय-समय पर उसके शरीर में कष्टदायक प्रतिक्रियाएं बढ़ने लगती है, जिसे "रोग" कहते हैं । इन्हें दूर करने के लिए अनेक चिकित्सा - प्रणालीया आजकल प्रचलित हो गई है जिनमें हजारों तरह की औषधियों, विशेषत: तीव्र विषात्मक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। इन तीव्र दवाओं से जहां कुछ लोग अच्छे होते हैं वहां उन्ही की प्रतिक्रिया से कुछ व्याधियां उत्पन्न हो जाती है और संसार में रोगों को घटाने की बजाय नए रोगों की वृद्धि हो जाती है ।
प्राकृतिक चिकित्सा का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर के अंदर एक ही विजातीय तत्व अनेक रूपों में अनेक नामों से जाना जाता हैं । शरीर में यही विजातीय तत्व मल के रूप में जमा है और वही मूल रोग की जड़ है। अव्यवस्थित जीवनशैली से शरीर में दूूूूषित मल एकत्रित होने लगते है, और विभिन्न रोगों में भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है । इन सबकी एक ही चिकित्सा है विजातीय द्रव्यों का निष्कासन । यह विजातीय तत्व हमारे शरीर के साथ नहीं मिल पाता , हमारे शरीर की रक्षा प्रणाली तन्त्र ( Immunity ) इस विजातीय मल के साथ निरन्तर संघर्ष कर शरीर से बाहर निकालती रहती हैं । परन्तु जब हम बार बार हानिकारक पदार्थों का सेवन करते रहते हैं उस परिस्थिति में हमारे शरीर में कमजोर होते रक्षा प्रणाली तन्त्र उस विजातीय तत्व को शरीर के विभिन्न मार्गों से निकालने लगता है , उसे ही रोग के विभिन्न नामो से जानते हैं ।
प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धांत
प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत नितांत मौलिक है, इनके अनुसार प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से रोग पैदा होते हैं तथा प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए पुन: निरोग हो सकते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा के दस उसके आधारभूत सिद्धांत है :-
1. सभी रोग एक है, उनका कारण भी एक है, और उनकी चिकित्सा भी एक ही है ।
जिस प्रकार ईश्वर एक ही है किंतु भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता हैै उसी प्रकार हमारे शरीर में हुए रोगों का कारण भी एक ही होता है पर उसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। चोट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोड़कर सभी रोगों का मूल एक ही हैं और इनका उपचार भी एक ही है। प्रकृति के मल निकालने की क्रिया जो मनुष्य के रोगी होने की दशा में होती है उसमें रोगी और उसके चिकित्सक को बहिष्करण में प्रकृति को सहयोग करना चाहिए अर्थात उपवास जल उपचार जीवनी शक्ति को बढ़ाना तथा मल विसर्जन के सभी मार्गो को खोल कर इस प्रक्रिया को आसान बनाना चाहिए ।
2. रोग का कारण कीटाणु नही है ।
इस सिद्धांत के अनुसार कीटाणुओं का अस्तित्व उन्ही शरीर में होता है जिनमें पहले से ही विजातीय द्रव्य विद्यमान हो या जीवनी शक्ति कमजोर हो । क्योंकि विजातीय द्रव्य के कारण जीवनी शक्ति का ह्रास हो जाता है उस अवस्था में कीटाणुओं का प्रवेश शरीर में होता है। क्योंकि हमारा शरीर कीटाणुओं के रहने लायक नहीं है । कीटाणुओं को विकसित होने के लिए विजातीय मल की आवश्यकता होती है ऐसा स्वस्थ शरीर में होता ही नहीं है और जब माध्यम ही नहीं होगा तो वे पनपेंगे कैसे।
3. तीव्र रोग शत्रु नही मित्र होते है।
हर क्षण हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य उत्पन्न होते रहते हैं जिनको हम विभिन्न मार्गो द्वारा शरीर से बाहर निकालते रहते हैं। जैसे मल मार्ग, रोम कूपों, गुर्दे , गुदा आदि। जब यही मल किसी कारणवश बाहर नहीं निकल पाते हैं तो रोग उत्पन्न करके शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करते हैं इसी स्थिति को रोग होना कहते हैं प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगों को दो श्रेणी में बांटा गया है --
1. तीव्र रोग 2. जीर्ण रोग
जीर्ण रोग वह होते हैं जो शरीर में दबे रहते हैं और लंबे समय के बाद प्रकट होते हैं जिनके शरीर में रहते हुए हमारा शरीर काम तो करता है लेकिन अंदर से क्षतिग्रस्त होता रहता है।
तीव्र रोग वह होते हैं जिनकी अवस्था में शरीर कार्य करने में सक्षम नहीं हो पाता है और यह शरीर में तीव्र गति से आते हैं और वैसे ही तीव्र गति से चले भी जाते हैं। जैसे - बुखार , जुकाम ।
तीव्र रोग हमारे अंदर के विष को बाहर निकालने का कार्य करते हैं किंतु हम घबराकर औषधियों के माध्यम से उनके कार्य में रुकावट डालते हैं जिससे तीव्र रोग कुछ समय के बाद जीर्ण रोग का रूप ले लेते हैं।
4. प्रकृति स्वयं चिकित्सक हैं ।
अक्सर ऋतु परिवर्तन के समय अधिकतर लोगों को अस्वस्थता का सामना करना पड़ता है । जो कोई समस्या नहीं बल्कि हमारे द्वारा पिछली ऋतु में की गई गलत आदतों के दुष्प्रभाव को प्रकृति स्वयं ही निस्तारण करती है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि रोग स्वयं ठीक होते हैं कोई बाहरी वस्तु ने ठीक नहीं करती। जो चीजें शरीर में मौजूद है वही चीजें बाहर से भी सहायक होती है । यदि हम दवाओं के प्रयोग के बारे में सोचें तो पाएंगे कि वह तो केवल रोग को बढ़ने से रोक रही है उसे ठीक नहीं कर रही ठीक प्रकृति करती है। प्रकृति का कार्य अपने आप में आए विकार को स्वयं दूर करना है।
5. चिकित्सा रोगी की नही बल्कि रोगी के पूरे शरीर की होती हैं ।
प्राकृतिक चिकित्सा एकमात्र चिकित्सा पद्धति है जिसमें रोग की नहीं अपितु रोगी के पूरे शरीर कि चिकित्सा की जाती है । बाकी सभी चिकित्सा पद्धतियों में सिर्फ रोग की चिकित्सा पर ही ध्यान दिया जाता है। क्योंकि जो वास्तविक रोग है वह तो शरीर में अनावश्यक रूप से जमा हुआ विजातीय द्रव्य ही है जो समय पाकर किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करता है । अतः चिकित्सा रोग के चिन्ह की ना होकर उस कारण की होनी चाहिए जिसका वह चिन्ह है, या साधारण शब्दों में कहें तो चिकित्सा रोग की नहीं अपितु पूरे शरीर की होनी चाहिए। इसका एक कारण यह भी है कि विजातीय द्रव्य हमारे पूरे शरीर में विद्यमान रहते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा प्रत्येक रोग ठीक किया जा सकता है किंतु प्रत्येक रोगी नहीं। क्योंकि रोगी का अच्छा होना निम्न पांच बातों पर निर्भर करता है -
– रोगी के शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा कितनी है ?
- रोग निवारण हेतु यथेष्ट जीवन शक्ति उसमें है या नहीं?
- रोगी किस हद तक चिकित्सा करवा चुका है या करवा रहा है वह धैर्य तो नहीं खो रहा ?
- प्राकृतिक चिकित्सा से पहले रोगी को कोई घातक औषधियों का सेवन तो नहीं करवाया गया या ऑपरेशन तो नहीं हुआ है ?
- रोगी प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में विश्वास रखता है या नहीं ?
6. रोग निदान की विशेष आवश्यकता नहीं है ।
प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत के अनुसार सभी रोग एक हैं और उनके कारण भी एक ही है। ऐसी अवस्था में रोग निदान की विशेष आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । निदान हेतु एक प्राकृतिक चिकित्सक को केवल यह देखना होता है कि वह विजातीय द्रव्य शरीर के किस भाग में एकत्र है वह बगल में हो सकता है सामने, पीछे, मुख ,गर्दन या फिर पूरे शरीर में भी हो सकता है । रोगी के शारीरिक दशा को देखकर उसके मुख से सुनकर भी निदान कर लिया जाता है।
7. जीर्ण रोगो के ठीक होने में समय लगता है।
जीर्ण रोग का अर्थ है जिसमें रोग लंबे समय से बैठा है । उसे समाप्त करने में समय लगता है। जीर्ण रोग न तो बहुत जल्दी आते हैं न हीं जल्दी ठीक हो सकते हैं । इस प्रणाली में निरोग होने का मतलब केवल रोगों का दूर होना ही नहीं बल्कि नया जीवन प्राप्त करना है
8. प्राकृतिक चिकित्सा में दबे हुए रोग बाहर निकलते हैं ।
औषधि चिकित्सा रोग को समाप्त नहीं करती बल्कि दबाती है। परंतु प्राकृतिक चिकित्सा रोगों को दबाती नहीं उसे मारकर रोगों को समूल नष्ट कर देती है। उभार का अर्थ चिकित्सकीय भाषा में रोगों का तीव्र रूप थोड़े समय तक अथवा उग्र रूप दिखाकर फिर रोगी को सदा के लिए छोड़ देना होता है। उभार शरीर में दो-चार दिन या अधिक हुआ तो 1 सप्ताह में रोगी को निरोग दशा में छोड़कर चला जाता है । उभार की क्रिया अपने आप में विलक्षण क्रिया है इसमें शरीर में से क्रम जो रोग दबे होते हैं वह उल्टे क्रम से उभरते हैं और एक-एक करके नष्ट होते जाते हैं।
9. प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर, मन , आत्मा इन तीनो की चिकित्सा एक साथ होती हैं ।
प्राकृतिक चिकित्सा में शारीरिक, मानसिक ,आध्यात्मिक तीनों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है। शरीर ,मन और आत्मा इन तीनों के सामंजस्य का नाम ही पूर्ण स्वास्थ्य हैं। क्योंकि शरीर के साथ मन जब तक स्वस्थ नहीं है तब तक व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। और शरीर मन तभी स्वस्थ रह सकते हैं जब आत्मा स्वस्थ हो । केवल शरीर को ही स्वस्थ रखना मनुष्य का कर्तव्य नहीं है क्योंकि मन और आत्मा शरीर के अभिन्न अंग हैं। बिना मन के खुश हुए हमारी इंद्रियां कैसे खुश रह सकती है । यदि मन स्वस्थ नहीं है तो विशालकाय शरीर भी कुछ समय में समाप्त हो जाता है । प्राकृतिक चिकित्सा में इन तीनों के स्वास्थ्य पर बराबर ध्यान रखा जाता है।
10. प्राकृतिक चिकित्सा उत्तेजक औषधियो के दिये जाने का कोई प्रश्न नहीं ।
प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत में यह कहा गया है कि प्रकृति से बड़ा कोई चिकित्सक नहीं है । फिर वर्तमान समय के डॉक्टर अनेकों दवाइयों के प्रयोग करके रोगों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं किंतु उनके हाथ फिर भी असफलता ही लगती है। जिन दवाइयों का हम स्वस्थता की अवस्था में सेवन नहीं कर सकते फिर भी ना जाने क्यों रोग की अवस्था में उनका सेवन कराया जाता है और किस उम्मीद से। जिसका सेवन स्वस्थ मनुष्य के लिए लाभदायक नहीं है तो फिर वह रोगी के लिए कैसे लाभदायक हो सकता है।
- By Yogvansham
- 26-Apr-2020 00:29:09 AM
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